दरिया (dariya)

Sunday, December 18, 2005

 

nirmal verma

जब मैं छोटा था तो कई बार मैंने अपनी गर्मी की छुट्टियाँ ऍक छोटे से कस्बाती स्टेशन में गुजारी थी | वहाँ मेरे चाचा स्टेशन मास्टर थे | मैं देखा करता था कि रेल के डब्बे जो पुराने हो जाते थे उन्हें ऍक छोटी लाइन पर खड़ा कर दिया जाता था, रेलगाड़ियाँ आतीं और उन्हें छोड कर धड़धड़ाती हुई आगे बढ जातीं | उन खाली डब्बों में हम लुका छिपी का खेल खेलते थे| कभी कभी वहाँ हमें अनोखी चीजें मिल जातीं, किसी आदमी का मफलर, सीट के नीचे किसी लड़की का सैण्डल, ऍक बार तो मुझे ऍक मुसाफिर की फटी पुरानी नोटबुक भी मिली थी जिसमें पाँच रुपये का चीकट नोट दबा था| लेकिन सबसे विस्मयकारी स्मृति रेल के उस डब्बे की थी जो रेल की पटरी पर खड़ा हुआ भी कहीं नहीं जाता था|

Comments:
अनुराग जी, हिन्‍दी ब्‍लॉग जगत में आपका हार्दिक स्‍वागत है। हिन्‍दी के सम्‍बन्‍ध में आपकी चिन्‍ता और चिन्‍तन, दोनों ही ठीक हैं। यह बात यदि आपको मालुम नहीं है, तो जानकर शायद सुखद आश्चर्य होगा कि आपके अतिरिक्त हिन्‍दी लिखने वाले लगभग १५० ब्‍लॉगर और हैं। आपकी अगली प्रविष्टि पढ़ने के लिये प्रतीक्षारत...
 
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