जब मैं छोटा था तो कई बार मैंने अपनी गर्मी की छुट्टियाँ ऍक छोटे से कस्बाती स्टेशन में गुजारी थी | वहाँ मेरे चाचा स्टेशन मास्टर थे | मैं देखा करता था कि रेल के डब्बे जो पुराने हो जाते थे उन्हें ऍक छोटी लाइन पर खड़ा कर दिया जाता था, रेलगाड़ियाँ आतीं और उन्हें छोड कर धड़धड़ाती हुई आगे बढ जातीं | उन खाली डब्बों में हम लुका छिपी का खेल खेलते थे| कभी कभी वहाँ हमें अनोखी चीजें मिल जातीं, किसी आदमी का मफलर, सीट के नीचे किसी लड़की का सैण्डल, ऍक बार तो मुझे ऍक मुसाफिर की फटी पुरानी नोटबुक भी मिली थी जिसमें पाँच रुपये का चीकट नोट दबा था| लेकिन सबसे विस्मयकारी स्मृति रेल के उस डब्बे की थी जो रेल की पटरी पर खड़ा हुआ भी कहीं नहीं जाता था|