दरिया (dariya)

Monday, April 04, 2005

 

apologies of a hindi-speaker

बहुत दिनों के बाद लिख रहा हूँ हिन्दी में| मालूम होता है जैसे मैं अकेला बचा हूँ सारी दुनिया में हिन्दी में काम करने वाला इस वजह से नहीं कि और कोई हिन्दी में नहीं लिख रहा बल्कि इसलिये कि हिन्दी का वो आत्मीय रूप बचपन में गुम सा गया है और उसे वापस लाना मुश्किल लगता है|

आज के हिन्दी भाषी भी हिन्दी को अंग्रेजी से दूजा ही मानते हैं | अंग्रेजी और हिन्दी के अधिकार क्षेत्र बँटे हुए हैं | गालियाँ देकर या बौलिवुडिया बेफिक्री दिखाकर ही हिन्दी की शोभा बढाई जाती है | विज्ञान या पत्रकारिता या मीडिया के लिये अंग्रेजी ही सर्वोत्तम मानी जाती है | हिन्दी के इस मात्र हास्योपयोगी रूप से किसी को कोई समस्या नहीं क्योंकि इससे हमारे विखण्डित राष्ट्र में पलने वाली स्थानीय राष्ट्रवादी भावनाओं को ठेस नहीं पहुँचती | हिन्दी को उससे ऊपर कोई भी दरजा देने से वह अपनाने योग्य नहीं रह जाएगी | मुझे भली भाँति याद है एक तमिल महिला की बात जो मेरी शुद्ध हिन्दी को सुनकर नाराजी की हद तक पहुँच गयीं थीं ये सोचकर कि मैं हिन्दी को राष्ट्रभाषा की तरह थोपने वालों में से हूँ|

हिन्दी की वाणी में आज भारतीय संस्क्ऋति नहीं उपभोक्तावाद झलकता है | हिन्दीभाषी हिन्दी को उपभोक्ता के लिये तोड मरोड करने से बाज नहीं आने वाले | ऐसी अवस्था में मेरा वैसी हिन्दी से सम्पर्क टूटते जाना लाजमी ही है | पुरातन हिन्दी या उर्दू या संस्कऋत की जब चर्चा हो तो बन्दा हाजिर है, उपभोक्तावाद तो अन्त में अंग्रजियत को हि प्रमोट करेगा |

Archives

January 2005   April 2005   July 2005   September 2005   October 2005   December 2005   March 2006   November 2006   June 2008   November 2008   May 2011  

This page is powered by Blogger. Isn't yours?

Subscribe to Posts [Atom]